क्यूँ करूँ
अपनी सफाई पेश सरे राह क्यूँ करूँ
मैं आफ़ताब हूँ ये आगाह क्यूँ करूँ
मैं खुद ही मुसाफिर हूँ रास्ता हूँ फलक भी
राहों की रहबरों की फिर परवाह क्यूँ करूँ
तेरे शफक में भी एक क़तरा ग़रज़ का है
तो मैं भी इश्क तुझसे बे पनाह क्यूँ करूँ
तेरी सच्चाई के भरम में जब सीख लिया जीना
अब तोड़ के भरम सच को स्याह क्यूँ करूँ
अब्बू ने जो कहा था बचपन में,अब भी याद है
फिर उनके परवरिश को कब्रगाह क्यूँ करूँ
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
फिर बातों में तेरी आके ये गुनाह क्यूँ करूँ
क़दमों में मां की जन्नत मुझको मिली है 'शारिक'
हूर-ओ-परी की जन्नत की मैं चाह क्यूँ करूँ
शारिक एन. हसन