Wednesday, March 14, 2012

ghazal...kyun karun


                  क्यूँ करूँ 


अपनी सफाई पेश सरे राह क्यूँ करूँ
मैं आफ़ताब हूँ ये आगाह क्यूँ करूँ


मैं खुद ही मुसाफिर हूँ रास्ता हूँ फलक भी
राहों की रहबरों की फिर परवाह क्यूँ करूँ


तेरे शफक में भी एक क़तरा ग़रज़ का है
तो मैं भी इश्क तुझसे बे पनाह क्यूँ करूँ


तेरी सच्चाई के भरम में जब सीख लिया जीना
अब तोड़ के भरम सच को स्याह क्यूँ करूँ


अब्बू ने जो कहा था बचपन में,अब भी याद है
फिर उनके परवरिश को कब्रगाह क्यूँ करूँ


मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
फिर बातों में तेरी आके ये गुनाह क्यूँ करूँ


क़दमों में मां की जन्नत मुझको मिली है 'शारिक'
हूर-ओ-परी की जन्नत की मैं चाह क्यूँ करूँ 


                                                   शारिक एन. हसन 


1 comment:

  1. I liked it very much...more than I liked any poem I read in my entire life...and I mean it...this time...

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